अलमीरा के अंदर से अनसुनी आवाजें – खबरी लाल
आज के इस भौतिकवादी युग में मानव जीवन जीविका के जंग मे जुझते जुझते हुए इतना अस्त व्यस्त हो गया है कि वह जीवन जीने का तरीका व सलिका भुल गया है। खास कर आज के नगरीय व पश्चिमी सभ्यता के पक्षधर मार्डन लोग । मै भी अपने आप को इससे अछुता नही पाता हुँ। दिल्ली के शहरी सभ्यता व एकाकी जीवन के दैनिक दिनचर्या में मैअपने आप को ही गुनागार मानता हुँ । खैर मै आप से इस संदर्भ मे कभी अन्य आलेख मे चर्चा करूँगा ।
कल मेरी सप्ताहिक अवकाश होती है। आप की होगी क्योंकि कोरोना संकट के कारण इन सप्ताहिक कपूर्य की घोषणा की गई । अधिकतर लोग छट्टी के दिनो में प्लालिग घुमने फिरने का करते है चुँकि लाक डॉन / सफ्ताहिक कपूर्य मै भी इस छुट्टी का सदुपयोग करने की सोच रहा था कि कल रविवार है। मौसम भी हाड़ कम्पाने वाली सर्दी का है । इसलिए गर्म कपड़े के लिए मै आज सुबह कमरे के कोने की कपड़े की अलमीरा खोली ।
चूँकि स्वयं मै एक स्वतंत्र पत्रकार’ ‘ स्तम्भ कार ‘लेखक के संग एक भावानात्मक कवि भी हुँ।जिसके कारण आज अपने एक कमरे मे रखे अलमारी से मेरे कानो मे कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी थी ,टोपी बहन – टोपी बहन,आज शायद तेरा या मेरा नंबर लग जाए बाहर के वातावरण मे सर्दी बढ़ गई है शायद इन्हेआज हमारी जरूरत पड़ जाए..ये नरम -गर्म जुराबो की आवाज थी। उसके सुर में सुर मिलाते पिछले कई सालों के रखे सभी गर्म स्वेटरों ‘ गर्म शुट – पेन्ट कपड़े अपनी अपनी बात कहने को उतावले होने लगे.मान्यवर पत्रकार महोदय आप ने कितने शौक से हमे खरीदा था अपने रंग व अपनी पसंद के डिजायन-चुन कर सभी स्वेटर ,जर्सीया,शॉल कोट , पेन्ट, सभी मानो विरोध के स्वर थे । सभी एक स्वर मे बोल पडे श्री मान जी हम आपके लिए पसंद ओर फैशन हो सकते हैं परंतु पहनोगे तबन! बंद अलमारी में पडे – पडे हमारा अब दम घुट रहा है। ना जाने कितने लोग दिल्ली / एन सी आर व देश के महानगरो मे हाड कपाने वाले इससर्दी से ठिठुर रहे हैं ‘ जिसने अपनी आशियान सडको के किनारे -चौक चौराहे पर खुले आसमान के नीचे अपनी सर्दे भरी राते गुजरा रहे है।जिन्हें अभी हमारी शक्तजरूरत है। हर साल आप नए नए कपड़े लाकर हमारे ऊपर रख देते हैं ,आप हमारी जरूरत हमारा उपयोग… सब कुछ व्यर्थ है।मै तैयार होकर बाहर निकलने की जल्दी थी।क्योकि आलमारी मे चार पाँच कोट पेन्ट के कपड़े पिछले बर्षो से पडे थे । जिन्हे मुझे सिलाई करवाने के लिए टेलर को देना था।ऐसे मे
स्वेटर, जैकेट, दस्ताने, मफलर, जुराब सबकी मन की बात समझ आ रही थी.क्योकि मै एक पत्रकार होने के साथ लेखक्र ‘ समीक्षक ‘ स्तम्भकार के एक आम जिन्मेदार नागरिक हुँ। बस एक-दो दिन की मोहलत मांग वहां से निकलने की कवायद की ।सच मानिए..कभी सोचिए उन नीचे दबे ठंडे गर्म कपड़ों के बारे में जिन्होंने केवल हमारी अलमारी का वजन बढ़ा रखा है। मौका बे मौके भी उनकी तरफ देखते नहीं। अगले रविवार को यही काम करना है…जो नहीं पहनने उसे निकालकर जरूरतमंदों तक पहुंचाएंगे.. कपड़ों की घुटन भी कम होगी…. और ठंड से व्याकुल लोगों की ठिठुरन भी। लेकिन
इससे पहले आपकी अलमारी से बगावत के स्वर उठने लगे कपड़ो के साथ कल पुराने बिस्तर भी आ मिलेंगे,, आप भी इस काम को निपटा लें ……सबका भला। अलमारी भी हल्की,,मन भी हल्का,,, और हाँ सेलीफिन में अच्छे से सिंगल पैकिंग करके दीजिएगा।
आप भी अपने लिए खरीदे गये कपडे जिन्हे आप ने प्रेम पुर्वक खरीददारी की है। उनकी भावना का कद्र करे । अपने आस पास जरूरत मंदो मे अलमारियो पड़े गर्म कपड़े वाँटे ,अपने कपड़े की हसरते को पुरी करे । जरूरत मंद के चेहरे की खुसियाँ विखरे ‘ स्वयं मुस्कारते रहे।श्याद इसी का नाम जिन्दगी है। फिलहाल आपसे यह कहते हुए विदा लेते है – ना ही काहुँ से दोस्ती , ना ही काहुँ से बैर । खबरी लाल तो माँगे ‘ सबकी खैर ॥
प्रस्तुति
विनोद तकियावाला
स्वतंत्र पत्रकार ‘लेखक , समीक्षक ,स्तम्भकार